खिचता हूँ ओर तेरे
किधर भी मैं चला जाऊं
तेरा जादू हर तरफ़ है फैला
ख़ुद को शिकार इसका मैं पायूँ ।
दी तो तुने जिन्दगी बड़ी खूब मुझको
गमों के सागर में हिचकोले मैं खाऊं ,
पर डूबे जब मझधार में नैय्या मेरी
तुझसे कर गुजारिश सलामत पार लग्वायूं ।
वक़्त बना ही फिसलने को है
रोकना तोह इसको बोहोत मैं चाहूँ
काफ़ी कबड्डी खेल ली वक़्त से मैंने
पर हरदम मैं हारता ही जाऊं ।
माया कैसी रच दी है ये तुमने
जिसकी गिरफ्त से ना मैं बच पायु
माटी से बनाया है तुमने मुझको
अब माटी में ही समाता मैं जाऊं ।
किधर भी मैं चला जाऊं
तेरा जादू हर तरफ़ है फैला
ख़ुद को शिकार इसका मैं पायूँ ।
दी तो तुने जिन्दगी बड़ी खूब मुझको
गमों के सागर में हिचकोले मैं खाऊं ,
पर डूबे जब मझधार में नैय्या मेरी
तुझसे कर गुजारिश सलामत पार लग्वायूं ।
वक़्त बना ही फिसलने को है
रोकना तोह इसको बोहोत मैं चाहूँ
काफ़ी कबड्डी खेल ली वक़्त से मैंने
पर हरदम मैं हारता ही जाऊं ।
माया कैसी रच दी है ये तुमने
जिसकी गिरफ्त से ना मैं बच पायु
माटी से बनाया है तुमने मुझको
अब माटी में ही समाता मैं जाऊं ।
माया कैसी रच दी है ये तुमने
ReplyDeleteजिसकी गिरफ्त से ना मैं बच पायु
माटी से बनाया है तुमने मुझको
अब माटी में ही समाता मैं जाऊं ।
सुंदर सत्य कहा आपने
बहुत सही लिखा है है आपने ...सब कुछ मिलता है उसी कि रहमत से ...और मिटटी में मिल जाता है ...
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
achchhi abhivyakti.
ReplyDeletebahut hi sunder..
ReplyDelete"माटी से बनाया है तुमने मुझको
अब माटी में ही समाता मैं जाऊं ।"