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Thursday, January 29, 2009

क्या हम क्या तुम

मेरे दोस्त हजारों की गिनती में थे
मेरे शौक रहीसों के शौकों में थे
अरमान आसमान को छूते से थे
रुतबे गुरूर में चूर यूं थे।
शोहरत से प्यार ऐसा हुआ
होश तो जैसे खो ही दिया
ख्वाहिशों ने मुझको घेर यूं लिया
उनका गुलाम मैं बनता गया।
हाथों से वक़्त फिसलता गया
मेरी आंखों पे परदा सा पड़ता गया
मैं बाज़ी पे बाज़ी तो जीतता गया
पर ख़ुद से जुदा हो कर रह गया।
अब था वक़्त बोहोत पास मेरे
ख़ुद से मुलाक़ात के अरमान थे मेरे
मेरे ख़ुद ने मुझे कुछ भुला यूं दिया
मेरे वक़्त ने मुझे अब वक़्त न दिया
नाम भी गुम , काम भी गुम
पैसा भी गुम, वो दोस्त भी गुम
धोखा है सब , मत करो गुमान
है माटी सब माटी , क्या हम ..क्या तुम।

11 comments:

  1. हर शब्द एक नयी कविता-सा जान पड़ता है!

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  2. है सब माटी ....क्या हम और क्या तुम ...बहुत खूब ...बहुत अच्छा

    अनिल कान्त
    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  3. है माटी सब माटी क्या हम क्या तुम। अहा ! क्या बात है! बहुत ख़ूब !

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  4. very well said...
    "नाम भी गुम , काम भी गुम
    पैसा भी गुम, वो दोस्त भी गुम
    धोखा है सब , मत करो गुमान
    है माटी सब माटी , क्या हम ..क्या तुम। "

    :)

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  5. कितनी आसानी से सारे काम ख़त्म हुए
    कफ़न उठाया और हम दफ़न हूँ गए...

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  6. भाव और विचार के श्रेष्ठ समन्वय से अभिव्यक्ति प्रखर हो गई है । विषय का विवेचन अच्छा किया है । भाषिक पक्ष भी बेहतर है । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  7. bahut khoob, kya baat kahi hai,aapne to mureed kar liya apna,

    ----------------------------------------"VISHAL"

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  8. रसात्मक और सुंदर अभिव्यक्ति

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