झुमका
मेरी संगनी मुझसे है जुदा जुदा
चेहरे के एक ओर है वो , दूसरी ओर हूँ मैं लटका
एक झलक भी उसकी न देख पाऊ मैं
बहुत हूँ बेचैन … बहुत हूँ तड़पा ।
सखियों ने छू छू कर देखा तुझे
कितनी है सुंदर ये झुमकी , बोला तुझे
तूफान मेरे अन्दर था उठा
एक झलक मैं भी देखू तेरी , मन था मेरा ।
इन झुल्फों में उलझ कर अपने आप को मैं
ज़मीन पे ला गिराना चाहता हूँ
टूट ही जाऊँ चाहे गिरकर मैं
तेरी एक झलक पाना चाहता हूँ ।
मैं कामयाब हुआ गिरकर झलक पाने को तेरी
कितनी सुंदर तू लगती कानों में लटकी लटकी
पर मेरे गिरने का मोहतरमा को कुछ अहसास न हुआ
तू झूलती हुई उसके कानों में
उसके साथ आगे निकलती गयी
और मेरी आत्मा ......
टूटी सी ज़मीन पर पड़ी रह गयी।
रोंदा कितने कदमों ने मुझको
अपनी चमक खोता मैं गया
तू कानों मैं सजी झूमती रही
मैं वहीँ पड़ा तुझे ...
दूर जाता देखता रह गया ।
very beautiful description. i love your expression dear. keep it up. ravi
ReplyDeleteएक झुमका हमारी बरेली में भी गिरा था। सुना है आपने!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपके ब्लाॅग पर तो कुछ काॅपी ही नहीं होता ! फिर पेस्ट क्या करें ? (ः आपका ब्लाॅग तो ब्लाॅगिंग की मूल भावना (काॅपी-पेस्ट) के ही खिलाफ है। :)
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता है
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चाँद, बादल और शाम
बहुत ही प्यारा लिखा है आपने
ReplyDeletebahut hi umda rashi ji. mere blog par bhi aayen aur ho sake to mere blog ke lie aik prerna se bhari kavita bhejen
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