मेरे दोस्त हजारों की गिनती में थे
मेरे शौक रहीसों के शौकों में थे
अरमान आसमान को छूते से थे
रुतबे गुरूर में चूर यूं थे।
शोहरत से प्यार ऐसा हुआ
होश तो जैसे खो ही दिया
ख्वाहिशों ने मुझको घेर यूं लिया
उनका गुलाम मैं बनता गया।
हाथों से वक़्त फिसलता गया
मेरी आंखों पे परदा सा पड़ता गया
मैं बाज़ी पे बाज़ी तो जीतता गया
पर ख़ुद से जुदा हो कर रह गया।
अब था वक़्त बोहोत पास मेरे
ख़ुद से मुलाक़ात के अरमान थे मेरे
मेरे ख़ुद ने मुझे कुछ भुला यूं दिया
मेरे वक़्त ने मुझे अब वक़्त न दिया।
नाम भी गुम , काम भी गुम
पैसा भी गुम, वो दोस्त भी गुम
धोखा है सब , मत करो गुमान
है माटी सब माटी , क्या हम ..क्या तुम।
है माटी सब माटी , क्या हम ..क्या तुम।
हर शब्द एक नयी कविता-सा जान पड़ता है!
ReplyDeleteहै सब माटी ....क्या हम और क्या तुम ...बहुत खूब ...बहुत अच्छा
ReplyDeleteअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
है माटी सब माटी क्या हम क्या तुम। अहा ! क्या बात है! बहुत ख़ूब !
ReplyDeletevery well said...
ReplyDelete"नाम भी गुम , काम भी गुम
पैसा भी गुम, वो दोस्त भी गुम
धोखा है सब , मत करो गुमान
है माटी सब माटी , क्या हम ..क्या तुम। "
:)
bahut khoob!
ReplyDeleteकितनी आसानी से सारे काम ख़त्म हुए
ReplyDeleteकफ़न उठाया और हम दफ़न हूँ गए...
भाव और विचार के श्रेष्ठ समन्वय से अभिव्यक्ति प्रखर हो गई है । विषय का विवेचन अच्छा किया है । भाषिक पक्ष भी बेहतर है । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।-
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com
bahut khoob, kya baat kahi hai,aapne to mureed kar liya apna,
ReplyDelete----------------------------------------"VISHAL"
sunder rachna. badhaai
ReplyDeletebhut sunder racna he.
ReplyDeleteRashi ji
रसात्मक और सुंदर अभिव्यक्ति
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